Is it possible to build flying cars?

Is it possible to build flying cars?



नमस्कार, आज से 60,70 साल पहले जब लोगों से पूछा जाता था की इमेजिन करो, साल 2024

कैसा दिखेगा? लोग सोचते थे बड़े ही फ्यूचरिस्टिक दिखने वाले शहर होंगे। हमारे पास ओवर

बोर्ड्स होंगे, आसमान में गाड़ियों उड़ रही होंगी। फ्लाइंग कार्स एक हकीकत बन चुकी होगी,

लेकिन अनफारचुनेटली ऐसा कुछ हुआ नहीं। आज के दिन की असलियत कुछ ऐसी है।

इमेजिन करते थे की साल 2020 ऐसा दिखेगा लेकिन जानते हो क्या दोस्तों? कम से कम

फ्लाइंग कार एक ऐसी चीज़ है जो धीरे धीरे हकीकत बनती जा रही है। आज साल 2022 में एक

कंपनी ने सक्सेसफुल्ली एक अक्चवल फ्लाइइंग कार को टेस्ट आउट कर लिया है। तो ये कोई

फ्यूचर का सपना नहीं बल्कि आज की हकीकत है। आइये समझते है इस टेक्नोलॉजी को आज

के इस blog में।

MAKING FLYING CARS

सुनकर ऐसा लगता है दोस्तों की फ्लाइंग कार एक बड़ी ही फ्यूचरिस्टिक सी चीज़ है लेकिन असलियत में इसको बनाने की कोशिश लोगों ने आज से 100 साल पहले से ही शुरू कर दी थी। साल 1917 में कहा जाता है. पहली कोशिश करी गई थी एक फ्लाइइंग कार बनाने की या फिर एक रोडेबल एयरक्रॉफ्ट बनाने की। एक ऐसा एरोप्लेन जो रोड पर भी चल सकता है।

WHO GAVE THE NAME FLYING CARS

इसे नाम दिया गया था ऑटो प्लेन ग्लन कर्टिस नाम के एक इंसान ने ये चीज़ बनाई थी। इसे उस समय में ऑफ़ दी ईयर भी कहा जाता था, लेकिन क्या ये फ्लाइंग कार असली में उड़ पाई थी? कहा जाता है कि जब इसे उड़ाने की कोशिश करी गई थी, ये ग्राउंड से थोड़ा लिफ्ट ऑफ हो गई थी, लेकिन अनफारचुनेटली कभी प्रोपरली फ्लाइ नहीं कर पाई थी तो ये ऑटो प्लेन एक फेल्यूर रहा था। इसके बाद आते हम साल 1933 में जब यु एस के एयर कॉमर्स ब्यूरो ने एक कॉम्पिटिशन कन्डक्ट किया था. फ्लाइओवर कॉम्पिटिशन नाम से इन्होंने चैलेंज किया लोगों को की कोई एक ऐसा एरोप्लेन का डिज़ेन बनाकर दिखा दे जिसकी कॉस्ट $700 से कम की पड़ेगी। कई मॉडल्स बनाए गए इस कॉम्पिटिशन में उनमें से एक मॉडल था।



WHO MADE CARS THAT LOOK LIKE FLYING CARS

दी एरोबाइलो वाटर मैन नाम के आदमी ने बनाया था ये गाड़ी जैसे दिखने वाला एक एरोप्लेन था जो अक्चवली में उड़ पाया था, लेकिन कभी प्रोडक्शन में नहीं जा पाया क्योंकि उस वक्त ग्रेट डिप्रेशन का टाइम था तो पैसे नहीं मिल पाए इसे फण्ड करने के लिए, इसको प्रोड्यूस करने के लिए लेकिन एक पहला प्रॉपर सक्सेसफुल एटेम्पट जिसे आप कह सकते हो वो हुआ 1945 जब अमेरिकन इन्वेंटर रॉबर्ट एडिसन फुलटॉन ने एयर फिबियन नाम का ये एरोप्लेन बनाया। ये दिखने में प्रॉपर एरोप्लेन जैसा सही लगता है। बस फर्क ये है की इसका आगे का पार्ट डिटेक्ट हो सकता था। करीब 5 मिनट का समय लगता था इस एरोप्लेन को कार में बदलने में और जो कार थी वो अक्चवली में एरोप्लेन का फ्रंट पार्ट है। इससे जैसे दिखती थी अपने टाइम के लिए ये एयर एक बहुत ही इन्नोवेटिव चीज़ थी और इसे फ्लाइट सर्टिफिकेशन भी गया था। मिल सिविल एविएशन अथॉरिटी से। लेकिन प्रॉब्लम ये थी यहाँ पर कॉप्रमाइज़ करने की वजह से ये ना तो एक अच्छा एरोप्लेन था जो एरोप्लेन जैसे लेवल तक बाकी एरोप्लेन से कंप्लीट कर पाए और ना ही ये एक अच्छी गाड़ी थी, जो बाकी गाड़ियों से कंपीट कर पाए। दिखने में ही ये गाड़ी जब बनती तो इतनी अजीब हो जाती। ऊपर से 1945 में वर्ल्ड वॉर टू की वजह से फाइनैंशल प्रोब्लम्स आई और इस कंपनी को इन्वेस्टर्स नहीं मिल पाए। डेफूस का ये एटेम्पट 1947 का अब ये चीज़ दिखने में ऐसा लगता था की एक गाड़ी है जिसके ऊपर एरोप्लेन चिपका दिया गया हो। कम से कम दिखने में पूरा एरोप्लेन लगता था। ये ऐसा इस फ्लाइंग कार के लिए। लेकिन फिर आई कॉर्न एयर कार इंडस्ट्रियल डिजैनर हेनरी ब्लगता है की गाड़ी गलती से चिपक गई हो एरोप्लेन के ऊपर और उसके साथ उड़ गई हो। इसे भी 5 मिनट का समय लगता था कॉनवर्ट करने में, एरोप्लेन से, कार में और इसका मतलब ये था कॉनवर्ट करने का की जो एरोप्लेन वाला हिस्सा है, उसे डिटेक्ट करके साइड में रख दिया जाता था और फिर इसे गाड़ी की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था। अपने टाइम के लिए ये ऐडिया भी अच्छा था, लेकिन अपनी तीसरी टेस्ट फ्लाइट में ये कॉर्न एयर कार क्रैश हो गई। पायलट ने मीटर पर रीडिंग देखी की यहाँ तो बहुत पेट्रोल बचा है। गाड़ी में मैं उड़ते रहता हूँ लेकिन गाड़ी में बहुत पेट्रोल था। एरोप्लेन वाले हिस्से में बहुत कम पेट्रोल था, जिसकी वजह से क्रैश हो गया। अनफारचुनेटली स्क्रैच के बाद लोगों का कॉन्फिडेंस लूज़ हो गया। इससे और इन्वेस्टर्स भी पीछे हट गए। इन सारे एटेम्पटस में दिक्कत ये थी कि यहाँ पर एक गाड़ी है। यहाँ पर एक एरोप्लेन है। दोनों को ऐसे के ऐसे कंबाइन करने की कोशिश करी जा रही थी। सही मायनों में फ्लाइंग कार वही होगी जो अक्चवली में ट्रांसफॉर्म हो पाए। एरोप्लेन से गाड़ी में ये ना हो कि दोनों चीजों को कंबाइन कर दिया। जब गाड़ी को इस्तेमाल करना होगा तो एरोप्लेन वाला हिस्सा बाहर निकाल के साइड में रख दिया तो मोल्टन टेलर पहले आदमी थे जिन्होंने सोचा कि अक्ववली में में एयर के डिज़ेन पर काम करता हूँ लेकिन जो विंग्स है एरोप्लेन के, मैं उन्हें फोल्डेबल बना देता हूँ ताकि जब गाड़ी की तरह से इस्तेमाल करना हो तो विंग्स को अक्चवली में फोल्ड करके बस गाड़ी के पीछे एक जगह रख दिया जा सके। ये चीज़ हकीकत बनी। साल 1949 में इसे कहा गया। टेलर एरो का इन्हें सर्टिफिकेशन भी मिल गया। इन्हें मास्क प्रोडक्शन का अप्रूवल भी मिल गया, लेकिन दिक्कत ये थी की कम से कम 500 अडवांस ऑर्डर्स चाहिए थे। इस चीज़ के जीस से पहले की इसकी मास प्रोडक्शन शुरू हो पाती और इतने लोग ही नहीं थे जो इस चीज़ में इतने इंट्रेस्टेड थे तो 500 ऑर्डर्स भी नहीं मिल पाए। इसलिए उस डील को खत्म कर दिया गया। एक टाइम पर फोर्ड कंपनी भी काफी करीब आ चुकी थी। स्टेलर एरो कार को खरीदने के लेकिन वो डील भी फाइनलाइज़ नहीं हो पाई। यहाँ पर पैसे की तो एक कमी थी ही लेकिन उससे भी ज्यादा बड़ी प्रॉब्लम शायद यहाँ पर थी। टेक्नोलॉजी अडवांसमेंट की हमारे पास उतनी टेक्नोलॉजी ही नहीं थी कि सही मायनों में एक फ्लाइंग कार बनाई जा सके। लेकिन आज के दिन ना हमारे पास पैसे की कमी है |

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